महाराज जयराम जी का मूल स्थान ग्राम छोछी जिला सोनीपत हरियाणा में था। वह पंचाग्नि तपस्या करते। हरियाणा के विभिन्न गॉवों में ज्येश्ठ मास में दोपहर 12 बजे से 3 बजे तक अपने चारों ओर 5 फूट की दूरी पर अग्नि प्रज्जवलित करवाते और उसके मध्य में बैठते। ऊपर भगवान भास्कर की प्रचण्ड किरणें, इस स्थिति में बैठकर एक आसन में 3 घटें तक गायत्री जाप करते।
वर्षा ऋतु में वर्षा के समय विल्व वृक्ष अथवा पीपल के पेड़ के नीचे एक पैर से खड़े होकर तथा दोनों हाथ ऊपर करके तीन घंटे गायत्री जाप करते।
वे गॉवों में घूम-घूम कर सदाचार व धर्माचरण की शिक्षा देते । दान एवं दया करने की प्रेरणा देते एवं समाज में प्रचलित अंधविश्वास एवं कुरूतियों को दूर करने के लिए प्रोत्साहित करते। महाराज जी के प्रभाव से बहुत से लोगों ने शराब आदि व्यसनों का त्याग किया।
वे गौ-सेवा पर बहुत बल देते और गौ-संवर्धन हेतु ग्रामवासियों को प्रोत्साहित करते। उनकी प्रेरणा से अमावस को हल न चलाकर बैलों को विश्राम देने की प्रथा का शुभारम्भ हुआ जो आज भी हरियाणा व पंजाव के गॉवों में प्रचलित है। उस समय बूढ़ी एवं अपाहिज गायों को बध हेतु बेच दिया जाता था। इससे दु:खी होकर महाराज जी ने गौ-सेवा हेतु बेरीजिला रोहतक हरियाणा में गौशाला की स्थापना की जिसकी एक शाखा ग्राम जाखौली जिला सोनीपत में हैं। श्री जयराम पंचायती गौशाला बेरी एवं जाखौलीमें 1000 से अधिक बूढ़ी व अपाहिज गायों की सेवा की जाती है।
महाराज श्री जयराम जी घूमते-घामते तपस्या एवं साधना हेतु ऋषिकेश में सन् 1885 में आये और पोष मास में मायाकुण्डमें गंगा के अन्दर तीनघंटे ब्रह्ममूहुर्त में खड़े होकर गायत्री मा जापकरते। उन्होंने 12 वर्ष में एक करोड़ गायत्री मंत्र का जाप किया
उनकी इस कठिन साधना के फलस्वरूप मॉ गंगा एवं गायत्री माता की प्रेरणा से एक भक्त ने सन् 1850 में भूमि प्राप्त कर आश्रम की स्थापना की ओर अन्नक्षेत्र प्रारम्भ किया। तब से मॉ अन्नपूर्णा गंगा एवं गायत्री की कृपा से अन्नक्षेत्र अनवरत रूप से चल रहा है। महाराज जी की साधना एवं तपस्या से ऋद्धि-सिद्धि उनकी अनुगामी हो गई। महाराज जी उसका उपयोग लौकिक सुख के लिए नहीं करते। कहते हैं एक बार भण्डारे में घी कम पड़ गया और उस समय घी प्राप्त का कोई प्रबन्ध नहीं था। महाराज जी ने दो टिन गंगाजल के मंगाये ओर कढ़ाई में डालकर उसी से पूरी मालपूडे बनवाये। दूसरे दिन दो टिन घी माता गंगाको वापस कर दिया।
महाराज श्री जयराम जी 1903 में ब्रह्मलीन हुए।